यदि यह कानून लागू हो जाता तो हमारी हालत देश मे दोयम दर्जे के नागरिक की हो जाती

बहुत पुरानी बात नही है. दिसम्बर, 2013 में मनमोहन सिंह की कैबिनेट ने साम्प्रदायिक और लक्षित हिंसा अधिनियम (Communal and Target Violence Bill) विधेयक पर मुहर लगाई थी. लेकिन फरवरी 2014 में भाजपा के घोर विरोध और राज्यसभा के हंगामे के बीच कांग्रेस को यह विधेयक स्थगित करना पड़ा. इस बिल को याद करना अत्यंत आवश्यक है.

2004 में मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री पद पर मनोनीत किया गया था. साथ ही एक नई समानांतर व्यवस्था बनी. इसे राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (National Advisory Council- NAC) कहा गया. इसकी अध्यक्षा श्रीमती सोनिया गाँधी थीं. राष्ट्रीय सलाहकार परिषद या एनएसी का गठन सरकार को सलाह देने के लिए हुआ था, लेकिन यह बात आम थी कि एनएसी सलाह कम और आदेश अधिक देती थी और यह सुपर कैबिनेट की तरह काम करती थी. मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार रहे संजय बारू ने भी अपनी किताब ‘द एक्सीडेंटल पीएम’ में एनएसी के हस्तक्षेपों की चर्चा की है. गौरतलब है कि तब विपक्ष एनएसी को एक संविधानेत्तर संस्था बताता रहता था.

एनएसी के सदस्यों में हर्ष मन्दर, फराह नक़वी, अरुणा रॉय और रामनाथ मुंडा जैसे लोग थे. जबकि सलाहकारों में तीस्ता जावेद सीतलवाड़, जॉन दयाल, अबुसलेह शरीफ, राम पुनियानी, अनु आगा जैसे लोग थे. इन्ही लोगों की मदद से ड्राफ्ट किया हुआ कम्युनल वॉइलैंस बिल पहली बार सन 2005 में संसद में पेश हुआ. यह बिल इतना सख्त था कि लाठी तक को हथियार माना गया था. शायद एनएसी के सदस्य लाठी को संघ के गणवेश के साथ जोडकर देखने के आदी थे और उसके दूसरे उपयोग उनकी समझ के बाहर की बात थी. फिर भी ऑल इंडिया क्रिस्चियन कौंसिल को यह बिल यथेष्ठ सख्त नही लगी और उन्होंने इस कानून को और भी सख्त बनाने की बात की. मुस्लिम समाज को भी कानून में कमी दिख रही थी. मुस्लिम और ईसाई समाज की आपत्तियों को ध्यान में रखते हुए एनएसी ने सन 2011 में अंतरिम ड्राफ्ट बिल तैयार किया जिसके कुछ सुझाव बेहद खतरनाक और विवादास्पद थे.

कम्युनल वॉइलैंस बिल हर राज्य की जनसंख्या को दो समूहों बहुसंख्यक (dominant) और अल्पसंख्यक (non-dominant) में विभाजित करता है. इस विभाजन का आधार धर्म था. इस विधेयक का सबसे महत्वपूर्ण पहलू समूह (group) की परिभाषा है. इस विधेयक का पहला पारा ही एक तरह से घोषणा करता है कि दंगे हमेशा ही बहुसंख्यकों की तरफ से किये जाते हैं.

पूर्वोत्तर के कुछ राज्यों और जम्मू-कश्मीर के अतिरिक्त पूरे देश में हिन्दू ही बहुसंख्यक समुदाय है. लेकिन दिलचस्प बात यह है कि कश्मीर, जहाँ हिंदुओं पर सबसे अधिक अन्याय हुआ, वहाँ यह कानून लागू ही नही होना था. बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक तय करने के लिए राज्य को इकाई माना गया. उत्तरप्रदेश में हिन्दू बहुसंख्यक हैं लेकिन रामपुर जिले में अल्पसंख्यक. लेकिन कानून की मान्यता थी कि दंगा रामपुर में भी हुआ तो दंगाई हिन्दू होगा और पीड़ित अल्पसंख्यक समुदाय का व्यक्ति होगा. यह विधेयक स्पष्ट कहता है कि पीड़ित प्रत्येक परिस्थिति में अल्पसंख्यक ही होगा. ऐसी मान्यता अपने आप मे क्रूरतापूर्ण और संविधान की मूल भावना के विरुद्ध है.

इस विधेयक में साम्प्रदायिक और लक्षित हिंसा की परिभाषा भी बेहद खतरनाक है. यह कहता है कि अल्पसंख्यक समुदाय के प्रति द्वेषपूर्ण भावना रखना, अल्पसंख्यक समुदाय के व्यापार का बहिष्कार करना भी इस कानून में अपराध था. अल्पसंख्यक समुदाय के किसी व्यक्ति को शारीरिक, आर्थिक, मानसिक और भावनात्मक हानि या पीड़ा भी इस कानून के अंतर्गत आता है. कानून यह नहीं बताता कि भावनात्मक और मानसिक पीड़ा में कौन सी घटनाएं आएंगी. आइए, हम इसे समझने की कोशिश करते हैं.

मान लीजिये सड़क पर चलते हुए आपकी साइकिल किसी कार से टकड़ा गई और आपका कार वाले से झगड़ा हो गया और दुर्योग से वह कार वाला एक अल्पसंख्यक हुआ तो आप इस कानून के अंतर्गत दोषी होंगे. यदि आपने एक अल्पसंख्यक समुदाय के व्यक्ति को घर किराए पर देने से मना कर दिया तो वह मानसिक प्रताड़ना का आरोप लगाकर आपको जेल भेज सकता है. कक्षा में इतिहास पढ़ाते हुए आप इस्लामिक अत्याचार की कहानी बताएं तो अल्पसंख्यक समुदाय के किसी छात्र की भावना आहत हो सकती है और आप जेल के अंदर पहुँच सकते हैं. यहाँ तक कि तीन तलाक की आलोचना भी आपको जेल की रोटी चबाने पर मजबूर कर देगी. लेकिन किसी दंगे में एक हिन्दू महिला का बलात्कार हो जाये तो यह कानून उसे पीड़ित नही मानेगा क्योंकि इस कानून का आधार ही यह मान्यता है कि अल्पसंख्यक ही पीड़ित होगा.

इस विधेयक का आर्टिकल 56 कहता है कि इस कानून में परिभाषित सभी अपराध गैर जमानती होंगे. यही नही, आर्टिकल 70, 71 और 72 कहते हैं कि स्वयं को निर्दोष साबित करने का दायित्व आरोपी पर होगा. यदि आरोपी स्वयं को निर्दोष साबित न कर सका तो वह अपराधी माना जाएगा. पीड़ित का बयान ही आरोपी के विरुद्ध प्रमाण होगा.

यह कानून देश के संघीय ढाँचे को भी चुनौती देता है क्योंकि इस कानून के अंतर्गत केंद्र सरकार को अधिकार होगा कि वह किसी भी राज्य के किसी क्षेत्र को साम्प्रदायिक रूप से संवेदनशील घोषित कर इस कानून की धाराएं लागू कर दे. भारत मे दंगों का इतिहास बहुत पुराना है. और यह इतिहास बताता है कि दंगे शायद ही कभी बहुसंख्यक समुदाय के उकसावे पर हुआ हो. राजीव गाँधी के शासनकाल में केंद्र सरकार ने जब साम्प्रदायिक रूप से संवेदनशील जिलों के पहचान का काम किया तो अधिकतर ऐसे जिले जहाँ हिन्दू समाज अल्पसंख्यक है, वे ही सामने आए. लेकिन इस इतिहास को भुलाकर तत्कालीन सरकार जैसे हिंदुओं को दंडित करने पर ही तुली थी.

यदि यह कानून लागू हो जाता तो हिंदुओं की हालत देश मे दोयम दर्जे के नागरिक की हो जाती. हिन्दुओं की संपत्ति कब्जाने के लिये, उनका व्यपार नष्ट करने के लिए, उनके परिवार की महिलाओं पर बुरी नजर रखने वाले इस कानून का जमकर दुरुपयोग करते. भाजपा और संघ परिवार के तीव्र विरोध और कांग्रेस की गिरती राजनीतिक सेहत ने इस कानून को फरवरी 2014 में स्थगित करवा दिया. लेकिन 2019 के लोकसभा चुनावों के बाद यदि राजनीतिक हालात बदले तो इस काले कानून के बोतलबंद जिन्न के बाहर आने की आशंका के बादल फिर मंडरा सकते हैं (साभार )