श्री गणेश महोत्सव समिति देहरादून के कार्यक्रम में धर्माधिकारी डॉ रमेश चंद्र पांडेय ने कहा उत्तराखंड में प्रचलित गणेश विसर्जन की पद्धति शास्त्रसम्मत रीति से भिन्न

श्री गणेश महोत्सव समिति क्लेमेनटाउन, देहरादून द्वारा समायोजित सांस्कृतिक कार्यक्रम में पधारे धर्माधिकारी डॉ रमेश चंद्र पांडेय।

देहरादून, महोत्सव की टीम द्वारा आयोजित सप्तम दिवसीय सांस्कृतिक कार्यक्रम बड़े ही श्रद्धा, भक्ति और उत्साह के साथ सम्पन्न हुआ। इस अवसर पर विविध सांस्कृतिक प्रस्तुतियों के साथ विद्वत् संगोष्ठी का भी आयोजन किया गया।

समारोह के प्रमुख अतिथि ज्योतिष पीठाधीश्वर अनंत श्री विभूषित शंकराचार्य जी महाराज के धर्माधिकारी,श्री ज्ञानी गोलोकधाम के संस्थापक अध्यक्ष, उत्तराखंड विद्वत् सभा के संरक्षक एवं प्रख्यात ज्योतिषाचार्य डॉ. रमेश चंद्र पांडेय ने पुराण लेखन के वृत्तांत को विस्तार से प्रस्तुत करते हुए कहा कि उत्तराखंड में प्रचलित गणेश विसर्जन की पद्धति शास्त्रसम्मत रीति से भिन्न है। उन्होंने कहा कि सनातन परंपरा के अनुसार भगवान गणेश जी की मूर्ति विसर्जन की पद्धति शास्त्रसम्मत नहीं है क्योंकि भगवान गणेश अगर पूजा के अधिकारी हैं वह रिद्धि सिद्धि के देवता और शुभ और लाभ के सर्जक हैं भगवान गणेश के साथ ही लक्ष्मी भगवान गणेश और लक्ष्मी का वास सदैव घर के भीतर होना चाहिए उन्होंने कहा कि आज अनेक तरह की विसंगतियां सनातन धर्म परंपरा में इसलिए आ गई है कि हमारी गुरुकुल शिक्षा पद्धति अब व्यवहार में नहीं है उन्होंने गुरुकु पुनर्जीवित करने और सनातन धर्म संस्कृति के संरक्षण की आवश्यकता पर विशेष बल दिया।

पंत पीठ के अधिष्ठाता, पूर्वप्रकाशित विद्वत्सभा आचार्य मुकेश पंत ने अपने उद्बोधन में देवभूमि उत्तराखंड के देवत्व, गंगा के ब्रह्मत्व एवं उत्तराखंडी समाज के उत्तमत्व पर प्रकाश डाला।

संस्कृतज्ञ आचार्य धीरज मैठाणी ने कहा कि देवताओं के साथ वार्ता करने का माध्यम केवल देववाणी संस्कृत ही हैं । अतः हम सभी देववाणी संस्कृत को व्यवहार में लाना चाहिए ।

इस अवसर पर गणेश महोत्सव समिति के पदाधिकारियों में अध्यक्ष : श्री दिनेश जुयाल, महासचिव : श्री मोहन जोशी , संस्कृतिक एवं संगठन सचिव : आचार्य श्री दिनेश प्रसाद भट्ट एवं श्री अरुण व्यासलाल , कोषाध्यक्ष : श्री भूपेन्द्र सिंह नेगी, जयपाल सिंह रावत आचार्य अजय कोठारी ने सभी विद्वानों का अंगवस्त्र एवं स्मृति चिन्ह भेंट कर सम्मान किया गया।कार्यक्रम का सफल संचालन समिति के संस्कृतिक एवं संगठन सचिव आचार्य दिनेश प्रसाद भट्ट ने किया।

मोके पर उपाध्यक्षगण : सर्वश्री राजू फरस्वाण, राकेश जुयाल, मनोज मित्तल, मनमोहन पुजोल, दर्शक मसलाणी, तीरथ कश्यप, हरमीत जुयाल, मनवेंद्र कुमार शर्मा, विजय कन्नौजिया, सुनील कुमार, जितेन्द्र चन्द्रवाल, अभिषेक परसार, ज्योति प्रकाश कोहली, अनुराग सिंह गुर्साई, सुनील तोमर, भूपेंद्र सिंह रावत, सैटा सिंह राठौर, लोकेश सकलानी सचिवगण : सर्वश्री महेश पाण्डे, धर्मराज, तरुण देवरानी, नरेन्द्र थापा, विजयपाल शूरवीरचन्द, परिमल बोरा, विपिन सकलानी, विपिन कुमार चुकलानी, रमेश जेदाल, राजेश जियाल, सक्षम अग्रवाल, मंत्रीगण : सर्वश्री राजेन्द्र सिंह नेगी, अनुसूया प्रसाद जुयाल, श्री नरेन्द्र प्रसाद कोटनाला, गोपाल नेगी, विनोद राई, महाबीर सिंह रावत, रमेश भण्डारी, विरेंद्र सिंह नेगी संस्कृतिक टीम : सर्वश्री दुर्गा प्रसाद बडोनी, रविन्द्र सिंह रावत, संतोष सिंह बिष्ट, नारायण थापा, सचिन भाटिया (साउंड), रविन्द्र कुमार प्रजापति, मोहन सिंह नेगी, जगवीर लाल, लक्ष्मी चन्द साह, सप्तगिरि बिष्ट, अमित शर्मा चरण पादुका सेवा : मास्टर अनिकेत (टिक्कर), दीपांशु, अरविंद, लक्की, भविष्य एवं टीम समुपस्थित रही।

गुरुकुल का अर्थ है वह स्थान या क्षेत्र, जहां गुरु का कुल यानी परिवार निवास करता है. प्राचीन काल में शिक्षक को ही गुरु या आचार्य मानते थे और वहां शिक्षा ग्रेह्ण करने वाले विद्यार्थियों को उसका परिवार माना जाता था.

यहां पर धर्मशास्त्र की पढाई से लेकर अस्त्र की शिक्षा भी सिखाई जाती थी. इसमें कोई संदेह नहीं है कि योग साधना और यज्ञ के लिए गुरुकुल को एक अभिन्न अंग माना जाता है. यहां पर हर विद्यार्थी हर प्रकार के कार्य को सीखता है और शिक्षा पूर्ण होने के बाद ही अपना काम रूचि और गुण के आधार पर चुनता था.

उपनिषदों में लिखा गया है कि मातृ देवो भवः ! पितृ देवो भवः ! आचार्य देवो भवः ! अतिथि देवो भवः !

अर्थात माता-पिता, गुरु और अतिथि संसार में ये चार प्रत्यक्ष देव हैं, इनकी सेवा करनी चाहिए.

इनमें भी माता का स्थान पहला, पिता का दूसरा, गुरु का तीसरा और अतिथि का चौथा है.

गुरुकुल में सबको समान सुविधाएं दी जाती थी. मनुस्मृति में मनु महाराज ने कहा है कि हर कोई अपने लड़के लड़की को गुरुकुल में भेजे, किसी को शिक्षा से वंचित न रखें तथा उन्हें घर मे न रखें। 

स्त्री और पुरुषों की समान शिक्षा को लेकर गुरुकुल बहुत सक्रीय थे. उदाहरण: उत्तररामचरित में वाल्मीकि के आश्रम में लव-कुश के साथ पढ़ने वाली आत्रेयी नामक स्त्री का उल्लेख है. इससे पता चलता है की सह-शिक्षा भारत में प्राचीन काल से रही है. पुराणों में भी कहोद और सुजाता, रहु और प्रमद्वरा की कथाएँ वर्णित हैं. इनसे ज्ञात होता है कि कन्याएं बालकों के साथ पढ़ती थी और उनका विवाह युवती हो जाने पर होता था.

आगे चलकर लड़के और लड़कियों के गुरुकुल अलग-अलग हो गए थे, जिस प्रकार लड़कों को शिक्षा दी जाती थी उसी प्रकार से लड़कियों को भी शिक्षा दी जाती थी, शास्त्र–अस्त्र की शिक्षा तथा वेदों का ज्ञान दिया जाता था.

गुरु के महत्व को प्रतिपादित करने के लिए कहा गया है कि गुरु ब्रह्मा, गुरु विष्णु गुरु देवो महेश्वर, गुरु साक्षात् परमं ब्रह्मा तस्मै श्री गुरुवे नम:|

अर्थात- गुरु ही ब्रह्मा है, गुरु ही विष्णु है और गुरु ही भगवान शंकर है. गुरु ही साक्षात परब्रह्म है. ऐसे गुरु को मैं प्रणाम करता हूं.

गुरुकुल परम्परा की व्यवस्था हमें बताती है कि देश में शिक्षा प्रणाली की व्यवस्था कितनी श्रेष्ठ थी, जिसमें आमिर-गरीब का कोई भेद नहीं था.

शिक्षा पूर्ण हो जाने पर गुरु शिष्य की परीक्षा लेते थे. शिष्य अपने सामर्थ्य अनुसार दीक्षा देते, किंतु गरीब विद्यार्थी उससे मुक्त कर दिए जाते थे और समावर्तन संस्कार संपन्न कर उसे अपने परिवार को भेज दिया जाता था.  

प्राचीन भारत में, गुरुकुल के माध्यम से ही शिक्षा प्रदान की जाती थी. इस पद्धति को गुरु-शिष्य परम्परा भी कहते है. इसका उद्देश्य था:

– विवेकाधिकार और आत्म-संयम

– चरित्र में सुधार

– मित्रता या सामाजिक जागरूकता

– मौलिक व्यक्तित्व बुद्धि और गुणों का विकास

– पुण्य का प्रसार

– आध्यात्मिक विकास

– ज्ञान और संस्कृति का संरक्षण

गुरुकुल में किस प्रकार छात्रों को विभाजित किया जाता था:

 छात्रों को तीन श्रेणियों में विभाजित किया जाता था:

1. वासु – 24 वर्ष की आयु तक शिक्षा प्राप्त करने वाले.

2. रुद्र- 36  वर्ष की आयु तक शिक्षा प्राप्त करने वाले.

3. आदित्य- 48 वर्ष की आयु तक शिक्षा प्राप्त करने वाले।