कल राखी बांधने के लिए शुभ मुहूर्त, परमात्मं तत्व के जिज्ञासुओं के लिए छ भारतीय दर्शन, गौतम ऋषि की तपस्थली गंगभेवा बावड़ी को पर्यटन मानचित्र पर लायेंगे: महाराज, रक्षाबंधन- मन में स्नेह की सच्ची अनुभृति के साथ कंधे से कंधा मिलाकर एकात्मकता का पवित्र पर्व

*राखी बांधने के लिए शुभ मुहूर्त -*

19 अगस्त को सावन पूर्णिमा के दिन सुबह 3 बजकर 4 मिनट से पूर्णिमा तिथि लग जाएगी, जिसका समापन रात 11 बजकर 55 मिनट पर होगा पूरे दिन पूर्णिमा तिथि रहने पर भी सुबह राखी बांधी जा सकेगी, लेकिन कुछ ज्योतिषियों का कहना है कि इस दिन सूर्योदय से पूर्व ही भद्रा  का साया रहेगा, जिसकी समाप्ति दोपहर 1 बजकर 29 मिनट पर होगी इस कारण  दिन मे १:32 मिनट से ०४:२५ मिनट तक ही लग्न है। लेकिन कल पूरे दिन पर्व काल होने के कारण मैं इसका खंडन करता हूँ और इस संदर्भ में तदेव लगनं सुदिनं तदेव: ताराबलं चन्द्रबलं तदैव: लक्ष्मी पते ते युग: स्मरामि: अर्थात ब्राहमण जब गणेश जी और विष्णु पते शब्द का उच्चारण कर शुभ कार्य करदें उसी समय शुभलगन और शुभ मुहूर्त हो जाता है। उसे तारा बल और चन्द्रबल भी मिल जाता है। पहले ब्राहमण अपने यजमानों की रक्षा के लिए उनके घर जा कर रक्षा सूत्र मौलि बांधते थे और अपने यजमान को जनेऊ भी देते थे, बहिन भी जब भाई को गणेश जी और भगवान विष्णु का नाम लेकर राखी बाँधे वही शुभ लगन हो जाता है। लेकिन अब बहने भाई को बहुत मूल्यवान राखी बांधने लगी हैं। यही नहीं घर के पकवान छोड़ कर कैडबरी की महिनों सड़ी हुई चाकलेट और सिंथेटिक मिठाई स्टैटस सिंबल हो गयी हैं। मोल लेकर जहर बांटने का यह चलन बंद होना चाहिए। 

 कुछ ज्योतिषी कहते हैं कि भद्रा काल में राखी बांधना शास्त्र सम्मत नहीं है। मान्यता है कि, रावण की बहन के भद्रा काल में राखी बांधी थी, जो उसकी मृत्यु का कारण बना। इसके बाद से ही भद्रा में कोई भी बहन अपने भाई को राखी नहीं बांधती है।

ऐसे में आप दोपहर 01 बजकर 32 मिनट के बाद आप भाई को राखी बांध सकती हैं. क्योंकि इस समय भद्रा समाप्त हो जाएगी. वहीं राखी बांधने के लिए दोपहर डेढ़ बजे से लेकर शाम 7 बजे के बीच सबसे शुभ समय रहेगा। 

इसके लिए पहले हम जाने कि भद्रा कौन है?

भद्रा कौन हैं धार्मिक दृष्टिकोण की बात करें तो इसके अनुसार भद्रा भगवान शनिदेव की बहन और सूर्य देव की पुत्री हैं। यह बहुत सुंदर थी लेकिन इनका स्वभाव काफी कठोर था। उनके उस स्वभाव को सामान्य रूप से नियंत्रित करने हेतु उन्हें पंचांग के एक प्रमुख अंग विष्टि करण के रूप में मान्यता दी गई। जब कभी भी किसी शुभ तथा मांगलिक कार्य के लिए शुभ मुहूर्त देखा जाता है तो उसमें भद्रा का विचार विशेष रूप से किया जाता है और भद्रा का समय त्यागकर अन्य मुहूर्त में ही कोई शुभ कार्य किया जाता है। लेकिन यह देखा गया है कि भद्रा सदैव ही अशुभ नहीं होती बल्कि कुछ विशेष प्रकार के कार्यों में इसका वास अच्छे परिणाम भी देता है।

भद्रा की गणना

तिथिवारं च नक्षत्रं योग: करणमेव च ।

यत्रैतत्पञ्चकं स्पष्टं पञ्चाङ्गं तन्निगद्यते ।।

तिथि, वार, योग, नक्षत्र और करण मुहूर्त के अंतर्गत पंचांग के मुख्य भाग हैं। इनमें करण एक महत्वपूर्ण अंग माना गया है। कुल मिलाकर 11 करण होते हैं, जिनमें से चार करण शकुनि, चतुष्पद, नाग और किंस्तुघ्न अचर होते हैं और शेष सात करण बव, बालव, कौलव, तैतिल, गर, वणिज और विष्टि चर होते हैं। इनमें से विष्टि करण को ही भद्रा कहा जाता है। चर होने के कारण ये सदैव गतिशील होती है। जब भी पंचांग की शुद्धि की जाती है तो उस समय भद्रा को विशेष महत्व दिया जाता है।

शुक्ले पूर्वार्धेऽष्टमीपञ्चदश्योर्भद्वैकादश्यां चतुर्ध्या परार्धे । 

कृष्णेऽन्त्यार्धे स्यात्तृतीयादशम्योः पूर्वे भागे सप्तमीशम्भुतिष्योः।। १॥ ४३ ॥

भद्रा ज्ञान – शुक्लपक्ष की अष्टमी और पूर्णिमा के पूर्वार्ष तथा चतुर्थी और एकादशी के उतरार्ध में भद्रा (विष्टि) करण होता है। कृष्णपक्ष की तृतीया दशमी के पूर्वार्ष में तथा सप्तमी और चतुदर्शी के पूर्वार्ध में भद्रा होती है। तिथि का पूरा मान निकालकर उसमें दो का भाग देने से आधा पूर्वार्ध और आघा उत्तरार्ध होता है। 

“रत्नकोश” ग्रन्थ में भद्रा के नाम और नाम सदृश फल भी बताया गया है। ये नाम क्रमशः (१) हंसी (२) नन्दीनि, (३) त्रिशिरा, (४) सुमुखी, (५) करालिका, (६) वैकृति, (७) रौद्रमुखी, (८) चतुर्मुखी ।

अतः मुहूर्त के अंतर्गत भद्रा का विचार मुख्य रूप से किया जाता है क्योंकि यह वास्तव में स्वर्ग लोक, पृथ्वी लोक तथा पाताल लोक में अपना प्रभाव दिखाती है। इसलिए किसी भी शुभ कार्य को करने के लिए भद्रा वास का विचार किया जाता है।

भद्रा का वास कैसे ज्ञात किया जाता है

कुम्भ कर्क द्वये मर्त्ये स्वर्गेऽब्जेऽजात्त्रयेऽलिंगे।

स्त्री धनुर्जूकनक्रेऽधो भद्रा तत्रैव तत्फलं।।१।।४५।। मु.चि.

जब चंद्रमा मेष, वृषभ, मिथुन और वृश्चिक राशि में होता है तो भद्रा स्वर्ग लोक में मानी जाती है और उर्ध्वमुखी होती है। जब चंद्रमा कन्या, तुला, धनु और मकर राशि में होता है तो भद्रा का वास पाताल में माना जाता है और ऐसे में भद्रा अधोमुखी होती है। वहीं जब चंद्रमा कर्क, सिंह, कुंभ और मीन राशि में स्थित होता है तो भद्रा का निवास भूलोक अर्थात पृथ्वी लोक पर माना जाता है और ऐसे में भद्रा सम्मुख होती है। उर्ध्वमुखी होने के कारण भद्रा का मुंह ऊपर की ओर होगा तथा अधोमुखी होने के कारण नीचे की तरफ होगा तथा सम्मुख होने पर भद्रा पूर्ण रूप से प्रभाव दिखाएगी।

 मुहुर्त्त चिन्तामणि के अनुसार भद्रा का वास जिस लोक में भी होता है वहां भद्रा का विशेष रूप से प्रभाव माना जाता है। ऐसी स्थिति में जब चंद्रमा कर्क राशि, सिंह राशि, कुंभ राशि और मीन राशि में होगा तो भद्रा का वास भूलोक में होने से भद्रा सम्मुख होगी और पूर्ण रूप से पृथ्वी लोक पर अपना प्रभाव दिखाएगी। यही अवधि पृथ्वी लोक पर किसी भी शुभ कार्य को करने के लिए वर्जित मानी जाती है, 

स्वर्गे भद्रा शुभं कुर्यात पाताले च धनागम।

मृत्युलोक स्थिता भद्रा सर्व कार्य विनाशनी।।

 पियूष धारा के अनुसार जब भद्रा का वास स्वर्ग लोक में हो तो वह शुभ फल दायक तथा पाताल लोक में होगा तब वह धन देने वाली होगी। परन्तु मृत्युलोक पर स्थित भद्रा कार्य विनाशक होती है। 

स्थिताभूर्लोस्था भद्रा सदात्याज्या स्वर्गपातालगा शुभा।

मुहूर्त मार्तण्ड के अनुसार जब भी भद्रा भूलोक में होगी तो उसका सदैव त्याग करना चाहिए और जब वह स्वर्ग तथा पाताल लोक में हो तो शुभ फल प्रदान करने वाली होगी।

अर्थात जब भी चंद्रमा का गोचर कर्क राशि, सिंह, कुंभ राशि तथा मीन राशि में होगा तो भद्रा पृथ्वी लोक पर होगी और कष्टकारी होगी। ऐसी भद्रा का त्याग करना श्रेयस्कर होगा।

भद्रायां द्वे न कर्त्तव्ये श्रावणी फाल्गुनी तथा। 

इसलिए भद्रा काल मे श्रावणी(रक्षाबंधन) फाल्गुनी (होली) नहीं करनी चाहिए। 

इस वर्ष रक्षाबंधन 19 -08-2024 को मनाया जाएगा। इस दिन पूर्णिमा तिथि होने के कारण भद्रा होगी और मकर राशि मे चंद्र होने से इसका वास पाताल लोक में होगा। परंतु रक्षाबंधन में भद्रा काल त्याज्य है इसलिए विशेष परिस्थिति में यह प्रातः 09:51 से 10:54 तक (भद्रा पुच्छकाल) में किया जा सकता हैं।✍️हरीश मैखुरी 

*गौतम ऋषि की तपस्थली गंगभेवा बावड़ी को पर्यटन मानचित्र पर लायेंगे: महाराज*

देहरादून। जनपद के विकासनगर (पछुवादून) स्थित पौराणिक और ऐतिहासिक महत्व के प्राचीन गौतम ऋषि की तपस्थली महादेव गंगभेवा बावड़ी स्थल का विकास करने के साथ-साथ इसे पर्यटन मानचित्र पर अंकित किया जाएगा।

उक्त बात प्रदेश के पर्यटन, लोक निर्माण, सिंचाई, पंचायतीराज, जलागम, धर्मस्व एवं संस्कृति मंत्री सतपाल महाराज ने रविवार को जनपद जनपद के विकासनगर (पछुवादून) स्थित पौराणिक और ऐतिहासिक महत्व के प्राचीन गौतम ऋषि की तपस्थली महादेव गंगभेवा बावड़ी में पूजा अर्चना करने के बाद पूरे परिसर का स्थलीय निरीक्षण करने के बाद कही। उन्होंने कहा कि विकासनगर के पर्यटन को आगे बढ़ाने के लिए और यहां के छिपे हुए पौराणिक धार्मिक स्थलों का विकास करने के अलावा उन्हें पर्यटन मानचित्र पर लाया जाएगा।

पर्यटन एवं धर्मस्व मंत्री श्री महाराज ने कहा कि पौराणिक और ऐतिहासिक दृष्टि से अति महत्वपूर्ण और वेद, पुराणों में वर्णित अहिल्या माता और गौतम ऋषि की तपस्थली महादेव गंगभेवा बावड़ी जहां मां गंगा माता साक्षात प्रकट हुई थी। बहुत ही पवित्र एवं महत्वपूर्ण स्थान है। इसलिए हम इसका विकास कर इसे पर्यटन मानचित्र पर लयेंगे ताकि श्रद्धालु यमुना के क्षेत्र में गंगा का दर्शन कर सकें। उन्होंने कहा कि पछुवादून क्षेत्र का प्राचीन काल से ही बड़ा महत्व रहा है। यहां पर कई सूर्य और चंद्रवशी राजाओं ने बड़े-बड़े यज्ञ किए। प्रसिद्ध ऋषि-मुनियों के आश्रम भी यहां पर मौजूद थे। जिनके प्रमाण आज भी देखने को मिलते हैं। इन्हीं में से एक है गौतम ऋषि की तपस्थली महादेव गंगभेवा बावड़ी मंदिर।

इस अवसर पर गंगभेवा बावड़ी मंदिर समिति के अध्यक्ष रविन्द्र सिंह चौहान, उपाध्यक्ष दीपक नौटियाल, पुरुषोत्तम धीमान, अनुराग ठाकुर, आशीष शर्मा, नरेश बहुगुणा, यश कश्यप, मनोज शर्मा, नितिन अग्रवाल, जयपाल सिंह चौहान, सुधीर चौहान, संतोष और श्रीमती नीरू देवी आदि उपस्थित थे।

✍️निशीथ सकलानी

जो महानुभाव, परमात्मं तत्व के जिज्ञासू व इच्छुक हैं, उनके लिए यह जानना भी आवश्यक है कि अपने-अपने अंधविश्वासों को नियंत्रित करते हुए, स्वयं के स्वरुप को जानने व समझने के लिए प्रयासरत होना ही पड़ता है, अपने अध्यात्मिक विचारों, भावों, मंतव्यों, मंशाओं, मान्यताओं को तब तक निष्क्रिय अवस्था में जीवित रखना पड़ता है, जब तक कि स्वयं का अध्ययन व अवलोकन नहीं किया जाता है कि:- हमें आखिर चाहिए क्या ? हम क्यों व क्या खोजना या पाना चाहते हैं ? एवं इसके लिए हमारे पास क्या पर्याप्त तैयारी है ? पर्याप्त शिक्षा, श्रुति, स्मृति, गुरू-कृपया व स्व-अनुभव हैं ?

जब तक यह गम्भीर दर्शन उत्पन्न न हो, तो किसी की भी बात व योजना पर आगे नहीं बढ़ना चाहिए, क्योंकि दूसरों के अपने मंतव्य, निजि स्वार्थ व मंशा के पीछे के कारणों को जाने, समझे बिना अंधाधुंध, अवांछनीय अनुसरणों को अनविज्ञतावश अपनी निजि व मौलिक पहचान मिटाने के लिए एवं दूसरों का अस्तित्व रोपने की नीति पर काम कर नष्ट होने पर रोकथाम लगानी चाहिए क्योंकि एक अंतराल बाद जब हमारे ही हाथों अपना सब कुछ मिटाते हुए किसी के गुलाम बन जाते हैं, तब पता लगता है कि हम तो सिर्फ बनावटी दुनिया का खिलौना मात्र थे, फिर अपना अस्तित्व समाप्त हुए लम्बाअंतराल बीत जाता है एवं वे लोग, वे संस्कार, वह समझ, वह पीढ़ी या भौतिक स्वरूप तो धरती त्याग चुकी होती है एवं जो नयी पीढ़ी वर्तमान पटल पर होती है वे अपनों का साथ इसलिए नहीं दे पाते क्योंकि वे अपने ही अभिभावकों द्वारा दूसरों का अनुपालन, अनुसरण करने के अभ्यस्त बन चुके होते है, वे अभ्यस्त संस्कृति द्वारा अपनी मौलिक पहचानों को जटिल समझने लगते हैं। 

किसी विशेष लक्ष्य के लिए उस चरमता का उदय करने के लिए फिर विभिन्न प्रकार की क्षमता, योग्यता, उर्जा व शक्ति चाहिए होती है, जब तक कोई स्वरुप प्रकट व प्रत्यक्ष नहीं हो पाता तब तक आंखमूंद कर मान्यताओं व परमपराओं के पीछे भागना अहितकर होता है, किसी भी स्वरुप पर आगे बढ़ने के लिए विचारमुक्त होना पड़ता है तभी मन स्थिर होकर सही व सकारात्मक भाव उत्पन्न करता है, सुविचारों व सुभावनाओं का आगमन प्रारम्भ होता है क्योंकि चित का मूल स्वभाव यही है।*

*हां, कुछ अभ्यासों से उच्च विचारों का उदय अवश्य होता है, विचार उच्च होने से भावनाएं स्वत: ही शुद्ध व पवित्र होने लगती है, यदि भावनाएं शुद्ध, पवित्र व पापमुक्त होती हैं तो मानव मन स्वास्थ्य एवं शरीर की तरफ भी ध्यान देने लगता है, फिर योग, व्यायाम, प्राणायाम, साधना, ध्यान जैसे महत्वपूर्ण ऊर्जाओं की प्राप्ति व उत्पत्ति के लिए प्रोत्साहित होता है।*

*सम्पूर्ण विश्व में किसी भी धर्म, रिलीजन, मजहब, सम्प्रदाय, पंथ, ग्रंथ, परम्परा, मत, मतांतर का पालनकर्ता हो उसके भीतर उठने वाली जिज्ञासाओं के सम्पूर्ण कारकों का विवरण, दैवीय कारणों से ही जो भी उर्जा उत्पन्न व संचय होती है उन सबका संज्ञान सनातन धर्म के विभिन्न कालखंडों में तैयार “छः” शास्त्रों में मिल जाता है, इन “६” शास्त्रों को “षड्दर्शन” कहा जाता है, जो निम्न प्रकार से हैं:-*

*१. न्याय दर्शन*

*२. वैशेषिक दर्शन*

*३*. सांख्य दर्शन*

*४. योग दर्शन*

*५. मीमांसा दर्शन*

*६. वेदांत दर्शन*

*इन छः शास्त्रों का अध्ययन करके कोई भी मनुष्य अपने जन्म से मृत्यु तक की मानवीय मनों की स्थिति, सिद्धांतों व दर्शन को समझ सकता है।*

*न्याय दर्शन – यह दर्शन तर्क और तर्कशास्त्र पर आधारित है, जिसमें ज्ञान की प्राप्ति के साधनों और ज्ञान की प्रकृति का अध्ययन किया जाता है।*

*वैशेषिक दर्शन – यह दर्शन विशेष रूप से पदार्थ और गुणों के बारे में बताता है, जिसमें पदार्थों की उत्पत्ति, विकास और नाश का अध्ययन किया जाता है।*

*सांख्य दर्शन – यह दर्शन प्रकृति और पुरुष के बारे में बताता है, जिसमें प्रकृति के तीन गुणों – सत्व, रजस और तमस का अध्ययन किया जाता है।*

*योग दर्शन – यह दर्शन योग के आठ अंगों – यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि का अध्ययन करता है।*

*मीमांसा दर्शन – यह दर्शन वेदों के अर्थ और व्याख्या का अध्ययन करता है, जिसमें वेदों के मन्त्रों और ब्राह्मणों का अर्थ समझाया जाता है।*

*वेदांत दर्शन – यह दर्शन वेदों के अंतिम भाग – उपनिषदों का अध्ययन करता है, जिसमें ब्रह्म की प्रकृति और आत्मा के साथ उसके संबंध का अध्ययन किया जाता है।*

*यदि कोई महानुभाव जो जन्म व‌ मृत्यु के बीच गतिमान जीवन को समझते हुए इन शास्त्रों के निर्माण कर्ता ऋषियों के नाम समझना चाहता है तो उन्हें सम्मानित उद्देश्य पूर्ति के लिए बताया जा सकता है, इन दर्शनों के लेखक ऋषियों का नाम जानबूझकर अंकित इसलिए हमें नहीं किया जा रहा है, क्योंकि अधिकत्तर मानव प्रवृत्ति “मूल मर्म” को समझने व उनका अभ्यास करने के बजाए नामों में उलझने लगते हैं व बहुत कुछ पाने से वंचित रह जाते हैं (AIJVS)।*

*धन्यवाद जी।*

*🕉️🩷 जै मॉं देव 🩷🕉️*

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इस भूमि में अति प्राचीन काल से सपूर्ण समाज को विराट पुरुष के रूप में हमारे सामने रखा गया। प्रत्येक व्यक्ति उस विराट शरीर का एक छोटा-सा अंश है। मनुष्य का शरीर छोटी-छोटी अगणित जीवपेशियों (सेल्स) से बना है। उन अवयवों को एक सूत्र में परिचालित करनेवाली एक चैतन्यशक्ति शरीर की अस्मिता है। उसी के कारण सारे अवयव सपूर्ण शरीर की भलाई की दृष्टि से कार्य करते हैं। इसी के कारण शरीर सुदृढ़, सुव्यवस्थित एव जीवमान दिखाई देता है। समाज रूपी शरीर की अवस्था भी उसी प्रकार है। समाज का प्रत्येक व्यक्ति उन जीवपेशियों और अवयवों के समान सपूर्ण समाज शरीर का अविच्छिन अविभाज्य अंग स्वरूप रहकर समाज-शरीर की सेवा के लिए सर्वस्वार्पण की भावना से युक्त होकर प्रयत्नशील रहे, तभी समाज उत्कृष्ट रूप से चल सकता है।

रक्षाबंधन के पवित्र पर्व पर यही बात ध्यान में रखकर मन में निश्चय करें की स्नेह की सच्ची अनुभृति लेकर कंधे से कंधा मिलाकर अपने में वास्तविक बंधुता का भाव उत्पन्न कर शुद्ध, पवित्र, एकात्म जीवन उत्पन्न करेंगे। यही आज के पुण्य पर्व पर आप सबके लिए आह्वान तथा संदेश है। इसको ठीक प्रकार से समझकर समूचे भारत को अपने अंदर समाविष्ट कर प्रबल और महान बनाने का प्रयत्न करने के लिए हम सब आगे बढ़ें।

*श्री गुरुजी समग्र: खड-5: पृष्ठ-310*#रक्षाबंधन