सिर पर मैला ढोने की कुप्रथा भारत में म्लेच्छ आक्रांताओं के आगमन से हुई शुरू

  
हरीश मैखुरी
सिर पर मैला ढोने की कुप्रथा भारत में म्लेच्छ आक्रांताओं के आगमन के कारण शुरू हुई। इन क्रूरतम आक्रांताओं ने लोगों को छलबल और घोरतम अमानवीय यातनाएं देकर धर्मान्तरण कर भारतीयों को म्लेच्छ बनाया। जो डर गये उन्होने इस्लाम स्वीकार कर लिया। जिन्होंने इस्लामीकरण का विरोध किया उन्हें इन बेरहम यवनों ने सिर पर मैला ढोने और चमड़ा उतारने को विवश किया। हमारे महान और श्रेष्ठ व्यक्तियों ने सिर पर मैला ढोना और चमड़ा उतारना स्वीकार किया फिर भी अपना धर्म नहीं छोड़ा। मुस्लिम आक्रांताओं ने इन्हें ही भंगी चमार आदि नामों से पुकारा। वर्ना वेदों व पुराणों में वर्ण का जिक्र तो है लेकिन जातियों का नहीं, इससे पूर्व जातियां भारतीय संस्कृति में कभी नहीं रही। मुगलों के बाद अंग्रेजी शासन ने भी भारत में इस जाति व्यवस्था को कस्टमरी कानून बना कर यथासंभव बनाये रखा ताकि लोगों को जातियों में बांट कर राज कर सकें। अन्यथा सनातन धर्म में वर्ण व्यवस्था का संदर्भ है जातियों का नहीं। और वर्ण का अर्थ है वरण करना यानि पेशा अपनाना , पेशा जिसे आप स्वेच्छा से अपना या बदल सकते हैं। व्रह्म कर्म, देश रक्षा, व्यवसाय या सेवा आपकी लगन अपनी सामर्थ्य और इच्छा पर निर्भर था, जाति आधारित नहीं। उदाहरण के लिए राजा कौशिकी ने क्षत्रिय वर्ण त्याग कर व्रह्म कर्म अपनाया जबकि गुरु द्रोणाचार्य ने ब्रह्म कर्म छोड़कर क्षत्रिय कार्य अपनाया, यही सत्य है। लेकिन मुगल आक्रांताओं के बाद अंग्रेज़ी शासन और आजादी के बाद सरकार के पास वोट बैंक के लिए जातियां सबसे बड़े हथियार के रूप में आ गयी जो आज और खतरनाक रुप में हमारे सामने है। आज तो सरकार जाति प्रमाण पत्र बांटने की सबसे बड़ी और एकमात्र ऐजेन्सी बन गयी। इससे जातीय विद्वेष बढ़ रहा है। हम चाहते हैं हमारे शदियों से दबे कुचले तबके बिना समय गंवाये आर्थिक व सामाजिक रूप से सबल संपन्न और स्वाभिमानी हों उन्हें अपने धर्म पर गर्व हो। लेकिन राजनीतिक पैंतरों के चलते आरक्षण की आड़ में प्रतिभाओं का समूल नाश नहीं होना चाहिए । योग्यता का सम्मान हो और जातिगत आधार पर अपमान न या भेदभाव न हो, जातियों की जरूरत और प्रासंगिकता समाप्त हो गई है। जबकि वर्ण व्यवस्था आपकी अपनी संस्कृति और स्वेच्छा पर निर्भर है, ब्रह्म कर्म करने और श्रेष्ठ बनने के अवसर सबको समान रूप से उपलब्ध हैं।