उत्तराखंड में परम्परागत खेती और ग्रामीण अर्थव्यवस्था चौपट हो गयी है, परिणाम स्वरूप गांव तेजी से खाली हो रहे हैं

उत्तराखंड में #परम्परागत #खेती और ग्रामीण #अर्थव्यवस्था #चौपट हो गयी है। गांव तेजी से खाली हो रहे हैं
यहां अब #रोजगार और #विकास के नये #आयाम खोजने ही पडेंगे। उत्तराखंड जैसे छोटे राज्य में पिछली सरकारों के सनक के कारण छ #नेशनल_पार्क और छ #नेशनल_सैन्चुरीज से पल रहे #हिंसक जानवरों के कारण आये दिन यहां के नीरीह #निवासी और उनके पालतू #मवेशी भी #शिकार बन रहे हैं। हिंसक वन्य पशुओं और मनुष्यों के बीच संघर्ष भी बढ गया है। कठोर #वन #कानूनों से भी गांवों का वनों से आत्मीय रिश्ता कम हुआ है। उत्तराखंड के पचास प्रतिशत गांव आज भी सड़कों से वंचित हैं कुछ गांवो में सड़क तब पंहुची जब सड़कों के और शिशु मंदिरों के अभाव में गांव खाली हो गये। शहरीकरण और अंग्रेजी पढाने की गुलामी ने उत्तराखंड ही नहीं देशभर के अनेक गांव खाली करा दिए। उत्तराखंड में परम्परागत खेती और ग्रामीण अर्थव्यवस्था भारी संकट में है, लोग वन्य जीवों की डर से मंडुवा कौणी भट्ट झंगोरू जो गेंहूं धान रजमा चींणा भंगणा उगल फाफर उगाना छोड़ चूके हैं भूल चुके हैं, इसमें फ्री राशन भी एक बड़ा कारण बन रहा है। बागवानी भी चौपट हो गयी है। जिसके कारण भारी पलायन हो रहा है युवा तो गांव में दिखते ही नहीं हैं गांव “भूतहा” हो रहे हैं; यह समस्या अच्छी शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार के अवसरों की कमी, जंगली जानवरों का आतंक, और जलवायु परिवर्तन जैसे कारकों से पैदा हुई है, शहरों में अच्छे जीवन की आस में भी लोग अपने गाँव छोड़ रहे हैं, जिससे खेती बंजर हो रही है और ग्रामीण ढांचा कमजोर पड़ रहा है। पलायन बढने से न केवल उत्तराखंड की डेमोग्राफी बदल रही है अपितु देश यह सीमा भी असुरक्षित हो रही है। 
पर्यावरण संरक्षण के नाम पर केवल #विकास_विरोध ही #ऐजेंडा नहीं होना चाहिए। यहां तक कि चारधाम राजमार्ग योजना पर भी कुछ विकास विरोधियों ने पहले #ग्रीन #ट्रीब्यूनल और फिर #सुप्रीम_कोर्ट में जा कर रोक लगाई। वो तो भारतीय जनता पार्टी जैसी जिजीविषा वाली एक राष्ट्रवादी सरकार ने अपने रक्षा मंत्रालय के माध्यम से #कोर्ट को समझाया कि ये #सामरिक दृष्टि से #महत्वपूर्ण राष्ट्रीय #परियोजना है तब जा कर काम हो सका है वो भी आधा अधूरा।
वैसे ही #टिहरी_बांध पर बीस पच्चीस वर्ष पर्यावरण के नाम पर अड़चन डाली गयी गुमराह किया गया कि #टूट जायेगा दिल्ली तक डूब जायेगा लोग #मर जायेंगे। आज वही बांध पिछले पच्चीस वर्षों से अच्छी खासी #बिजली दे रहा है और #पर्यावरण संरक्षण भी कर रहा है। १५-१६ जून की अतिवृष्टि और बादल फटने से भागीरथी का पानी टिहरी बांध ने ही रोका नहीं तो ऋषिकेश तक क्षति होती।
ऐसे #विष्णुप्रयाग #परियोजना पर भी #पर्यावरण की दृष्टि से रोक लगाने के प्रयास हुए लेकिन आज करीब तीस वर्ष से अच्छी बिजली दे रहा है और ऐसी कोई बड़ी प्रत्यक्ष पर्यावरणीय छति भी नहीं दिख रही है। श्रीनगर #बांध पर भी कुछ #बामपंथियों आदि ने रोड़ा डाला आज बीस वर्षों से अच्छी #बिजली दे रहा है, कोई दिक्कत नहीं है इससे कुछ भूगत जल भी बढ रहा है।
ऐसे ही अब विकास विरोधियों ने पर्यावरण संरक्षण और पेड़ कटने के नाम पर हर्षिल जैसी सामरिक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण राजमार्ग का #बंठाघार करवा दिया और सरकार मान भी गयी। सड़क की चौड़ाई कम कर दी। इससे अच्छा अब बनाओ ही मत। 
पर्यावरण केवल उत्तराखंड पर ही काहे चिपकाना है। एक बार सड़कें बन जाय तो हरियाली फिर उग जाती है। हमारा परामर्श है कि विकास और पर्यावरण के बीच एक सामंजस्य हो जहाँ सड़कें आवश्यक हों वहां तत्काल बने जहां अस्पताल स्कूल सड़कें चाहिए तत्काल बने और पर्यावरण संरक्षण के लिए प्रतिबद्ध होकर कार्य भी हो। खूब पेड़ लगें, पंच वृक्ष लगें आम पंया बड़ पीपल नीम लीची और उपर हिमालयी क्षेत्रों में भोज देवदार लगे हर घर तुलसी लगे। लेकिन केवल विकास विरोध के लिए ऐजेंडा चलायें ये नहीं होना चाहिए। पेड़ और पर्यावरण मनुष्य के मस्तिष्क की भांति बंजर और उजड्ड नहीं है पेड़ तो धरती फाड़ कर अपने आप भी उग जाता है। हम तो बस जनसंख्या नियंत्रण कानून लायें ताकि धरती के प्राकृतिक संसाधनों का विधोहन कम से कम हो इस #धराधाम पर प्रदूषणकारी उज्जड्ड मनुष्य का बोझ कम हो जन संख्या नियंत्रण नहीं करेंगे और विकास कार्यों पर भी रोक लगायें ये भी एक तरह का असंतुलन ही है। राज्य बनने के बाद सैकड़ों गांव भुतहा हो गये और लगभग पन्द्रह लाख लोग स्थाई पलायन कर चुके हैं। पलायन रोकने के लिए उत्तराखंड में सरकार स्थाई राजधानी गैरसैंण बनाये, हर गांव व उसके हेमलेट को मोटर सड़क से जोड़े, बदरी गाय पालने वाले को एक हजार रूपए प्रति गाय प्रति माह दे, हर गांव में गुरूकुल और आयुर्वेदिक चिकित्सालय खोले। होम स्टे योजना का विस्तार गांव में भी करे ताकि प्रवासी उत्तराखण्डी जब भी अपने गांव आये तो उसे अपने गांव में टिकने की जगह तो मिले ✍️हरीश मैखुरी